भारत में अनेकों परम्पराएं और रीति रिवाज हैं। बहुसंस्कृतियों वाला हमारा देश अपनी विकास यात्रा में नित नव सृजन कर रहा है। विज्ञान, स्वास्थ्य, चिकित्सा, व्यापार आदि लगभग सभी क्षेत्रों में भारत आज विश्व के अग्रणी देशों में शुमार है, फिर भी बहुत सारे ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से मानसिक स्वास्थ्य का क्षेत्र अभी भी हमारे देश में उपेक्षणीय अवस्था को प्राप्त है। ऐसा भी नहीं है कि मानसिक स्वास्थ्य का विषय सिर्फ अपने ही देश में उपेक्षित है बल्कि दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करना, परिचर्चा करना और उसको पहचान दिलाना कठिन रहा है। 1948 में लंदन में स्थापित ‘मानसिक स्वास्थ्य के लिए विश्व महासंघ’ (World Federation for Mental Health) एक ऐसी संस्था के रूप में उभरा जिसने मानसिक स्वास्थ्य के महत्व पर बल दिया और इसके लिए जागरूकता फैलाने का प्रयास किया।
इसी संस्था के प्रयासों के फलस्वरूप 1992 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा, जागरूकता के लिए और इससे जुड़े सामाजिक लांक्षनों के विरुद्ध 10 अक्टूबर को प्रतिवर्ष मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाने का निर्णय लिया। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य की अपनी परिभाषा में शारीरिक, मानसिक और सामाजिक तीनों प्रकार के स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण माना है न कि महज बीमारी की अनुपस्थिति को। भारत में भी संसद ने 7 अप्रैल 2017 को मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम पारित किया जो कि 29 मई 2018 से प्रभावी हो गया है।
तमाम सारे सरकारी और अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के बावजूद मानसिक स्वास्थ्य को शारीरिक स्वास्थ्य जितना महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता है। समझा भी जाता है तो उसकी तरफ न तो ठीक से ध्यान दिया जाता है और न ही मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सामाजिक स्वीकार्यता है जैसे कि शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति है। उदाहरण के लिए हममें से कोई बुखार, सिरदर्द, पेटदर्द के लिए अपने ऑफिस से एक दो दिन की छुट्टी ले लेते हैं और हम लोगों के अधिकारी/ बॉस वो छुट्टी दे भी देते हैं। लेकिन क्या हो यदि आप अपने अधिकारी से कहें कि आज मेरा काम करने का मन नहीं है इसलिए मुझे 2-4 दिन की छुट्टी दे दीजिये ताकि मैं कहीं घूम फिर के अपना मन तरोताजा कर सकूँ। मुझे नहीं पता आपके अधिकारी का जवाब क्या होगा लेकिन शायद ही आपको इस वजह से छुट्टी मिले।
ऊपर से डांट पड़ने की संभावना भी रहेगी। यह भी कि कम से कम मैंने आज तक छुट्टी के लिए ऐसा कारण नहीं सुना है। यह छोटा सा उदाहरण इस चीज को दर्शाता है कि हम और आप अपने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति कितने उदासीन हैं।
अकसर ऐसा देखा जाता है कि लोग अपने मानसिक स्वास्थ्य की बात करने में घबराते हैं। इसके पीछे की बड़ी वजह है मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े हुए सामाजिक लांक्षन। कोई किसी मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक के पास गया नहीं कि उसके ऊपर एक लेबल लग जाता है। ज्यादातर लोग इसी लेबल के डर से अपनी मानसिक समस्याओं के बारे में खुलकर बात नहीं करना चाहते हैं।
हमारा समाज अभी भी यह मानने को तैयार नहीं है कि मानसिक स्वास्थ्य भी शारीरिक स्वास्थ्य जैसा ही महत्वपूर्ण है और मानसिक समस्याएं भी शारीरिक समस्याओं जितनी सामान्य। हाँलांकि धीरे धीरे ही सही लोगों में इस दिशा में जागरूकता बढ़ रही है फिर भी मानसिक समस्याओं और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सामाजिक स्वीकार्यता की बेहद कमी है।
मनोविज्ञान से जुड़े लोग इस बात को भली भांति जानते हैं कि मानसिक समस्याओं के इलाज में व्यक्ति का अनुकूली परिवेश महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः अगर हमारे परिवेश में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति स्वीकार्यता बढ़ेगी तो निश्चित रूप से मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लोगों को बड़ी मदद मिलेगी।
ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ समाज की जिम्मेदारी है। मनोविज्ञान से जुड़े लोगों की यह महती जिम्मेदारी है कि वे मानसिक स्वास्थ्य परिचर्चा को घर घर पहुंचाएं जिससे लोग अपनी मानसिक समस्याओं के बारे में बेझिझक बात कर सकें। इसके लिए सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी प्रभावी साधन हैं जिनके माध्यम से जनजागरूकता फैलाई जा सकती है। विडम्बना यह है मानसिक स्वास्थ्य इतना महत्वपूर्ण विषय होने के बावजूद जुलाई 2020 तक पूरे देश में भारतीय पुनर्वास परिषद (RCI) द्वारा मान्यता प्राप्त मात्र 35 संस्थान हैं जो नैदानिक मनोविज्ञान में एमफिल का कोर्स चलाते हैं।
इनमें भी सीटों की संख्या उल्लेखनीय रूप से कम है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य कर्मियों और प्रोफ़ेसनल्स की किस हद तक कमी है। कुल मिलाकर सरकार और मनोविज्ञान से जुड़े लोगों को मानसिक स्वास्थ्य के लिए देश में बुनियादी स्तर पर सुधार करना होगा तभी इस दिशा में सकारात्मक बदलाव देखने को मिलेंगें।
डॉ दयासिन्धु, असिस्टेंट प्रोफेसर, मनोविज्ञान विभाग, मड़ियाहूं पीजी कॉलेज, मड़ियाहूं, जौनपुर|